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________________ प्रस्तावना ६७ स्वामी समन्तभद्र यद्यपि बहुतसे उत्तमोत्तम गुणोंके स्वामी थे फिर भी कवित्व, गमकत्व. वादित्व और वाग्मित्व नामके चार गुण आपमें असाधारण कोटिकी योग्यताको लिये हुए थे—ये चारों शक्तियाँ उनमें खास तौरसे विकासको प्राप्त हुई थीं-और इनके कारण उनका निर्मल यश दूर-दूर तक चारों ओर फैल गया था। उस समय जितने 'कवि' थे-नये नये सन्दर्भ अथवा नई नई मौलिक रचनाएँ तय्यार करनेवाले समर्थ विद्वान थे, 'गमक' थे-दूसरे विट्ठनोंकी कृतियोंके मर्म एवं रहस्यको सममन तथा दूसरोंको समझानेमें प्रवीणबुद्धि थे, विजयकी और वचन-प्रवृत्ति रखनेवाले 'बादी थे, और अपनी वाक्पटुता तथा शब्दाचातुरीसे दृसरोंको रंजायमान करने अथवा अपना प्रेमी बना लेनमें निपुण एसे 'वाग्मी' थे, उन सबपर समन्तभद्रके यशकी छाया पड़ी हुई थी, वह चूड़ामणिके समान सर्वोपरि था और बादको भी बड़े-बड़े विद्वाना तथा महान् प्राचार्याके द्वारा शिरोधार्य किया गया है । जैसा कि विक्रमकी हवीं शताब्दीके विद्वान भगवांजनसेनाचायक निम्न वाक्यसे प्रकट है कवीनां गमकानां च वादीनां वाग्मिनामपि । यशः सामन्तभद्रीयं मूनि चूडामणीयते ॥ __ --प्रादिपुराण स्वामी समन्तभद्रके इन चारों गुणोंकी लोकमें कितमी धाक थी विद्वानोंके हृदय पर इनका कितना सिक्का जमा हुया था और वे वास्तव में कितने अधिक महत्वको लिये हुए थे, इन सब बातोंका कुछ अनुभव कराने के लिये कितने ही प्रमाण-वाक्योंको 'स्वामी समन्तभद्र' नामके उग्न ऐतिहासिक निबन्धमें संकलित किया गया है जो मारिणकचन्द्रग्रन्थमालामें प्रकाशित हुए रत्नकरण्ड-श्रावकाचारकी विस्तृत प्रस्तावनाके अनन्तर २५२ पृष्ठोंपर
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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