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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र १६७, १८४, १८५, १८६, १८७, नम्बरवाले पंद्रह पद्योंको मूलग्रंथका अंग नहीं बनाया गया-उन्हें टिप्पणीके तौरपर इधर उधर हाशियेपर दिया है और उनमेंसे 'खंडनी पेषणी' आदि तीन पद्योंके साथ 'उक्तं च' तथा 'एकादशके' आदि चार पद्योंके साथ 'उक्त च चतुष्टयं' ये शब्द भी लगे हुए हैं। ४१, १७४ और १७६ नम्बरवाले तीन पद्योंको ग्रंथका अंग बनाकर पीछेसे कोष्टकके भीतर कर दिया है और उसके द्वारा यह सूचित किया गया है कि ये पद्य मूलग्रंथके पद्य नहीं हैं-भूलसे मध्यमं लिखे गये हैंउन्हें टिप्पणी के तौरपर हाशिये पर लिखना चाहिये था। इस तरहपर अठारह पद्योंको ग्रंथका अंग नहीं बनाया गया है। बाकीके सतरह पद्योंमेंसे, जिन्हें ग्रंथका अंग नहीं बनाया है, ७१ से ७६, १०१ से १०५ और १७२ नम्बर वाले १२ पद्योंको 'उक्त च' 'उक्त च पंचकं' इत्यादि रूपसे दिया है और उसके द्वारा प्रथम मूलप्रतिके आशयसे भिन्न यह सूचित किया गया है कि ये स्वामी समन्तभद्रसे भी पहलेके-दूसरे प्राचार्योके-पद्य हैं और उन्हें समन्तभद्र ने अपने मूलग्रंथमें उद्धृत किया है। हाँ, पहली प्रतिमें 'भैषज्यदानतो' नामके जिस पद्य नं० १४२ को 'उक्तं च त्रयं' शब्दोंके साथ दिया है वह पद्य यहाँ उक्त शब्दोंके संसगसे रहित पाया जाता है और उसलिये पहली प्रतिमें उक्त शब्दोंके द्वारा जो यह सूचित होता था कि अगले 'श्रीपेण' तथा 'देवाधिदेव' नामके वे पद्य भी 'उक्तं च समझने चाहिये जो डेढ़सौ श्लोकवाली प्रतियों में पाये जाते हैं वह बात इस प्रतिसे निकल जाती है। एक विशेपता और भी इस प्रतिमें देखी जाती है और वह यह है कि 'अतिवाहना' नामके ६वें पद्यके बाद जिन छह श्लोकोंका उल्लेख पहली प्रतिमें पाया जाता है उनका वह उल्लेख इस प्रतिमें उक्त स्थानपर नहीं है । वहाँ पर उन पद्यामंस सिर्फ 'अहोमुखे' नामके ७२ वें पद्यका ही उल्लेख है-और उसे भी देकर
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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