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________________ १२ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश। विशेषण जाना जाता है और इसको धनदेवीके अनन्तर प्रयुक्त : करके कविने यह साफ सचित किया है कि धनदेवी कुरुवंशमें उत्पन्न हुई स्त्रियों में प्रधान थी। बाकी देवकी कंसको मानी हुई बहन थी, इस बातका यहाँ कोई उल्लेख ही नहीं है। इतने पर भी समालोचकजी इन भाषा छंदों परसे संदेह का काफूर होना मानते हैं और लिखते हैं :"यह सब कोई जानता है कि वसुदेव यदुवंशी थे, और देवकी कुरुवंशकी थी। परन्तु बाबू साहबने तो उसे सगी भतीजी बना ही दी।" परन्तु महाराज ! सब लोग तो देवकीको कुरुवंशकी नहीं जानते, और न हरिवंशपुराण तथा उत्तरपराण जैसे प्रचीन प्रन्थोसे ही उसका कुरुवंशी होना पाया जाता है-यह तो श्रापके ही दिमाग़ शरीफसे नई बात उतरी अथवा श्रापकी ही नई ईजाद मालम होती है। और आपकी ही कदाग्रह तथा बेहयाई का चश्मा चढ़ी हुई आँखें इस बातको देख सकती हैं कि बाब साहब लेखकाने कहाँ अपने लेखमें देवकीको वसदेव की 'सगी' भतीजी लिख दिया है, लेखमें दो हुई वंशावली परसे तो कोई भी नेत्रवान उसमें सगी भतीजीका दर्शन नहीं कर सकता। सच है 'हठग्राहो मनुष्य युक्ति को खींच खाँचकर वहीं लेजाता है जहाँ पहले से उसकी मौत ठहरी हुई होती है परन्तु जो लोग पक्षपात रहित होते हैं वे अपनी मतिको वहाँ ठहराते हैं जहाँतक युक्ति पहुँचती है । इसीसे एक प्राचार्य महाराजने,ऐसे हठ-ग्राहियों की बुद्धिपर खेद प्रकट करते हुए, लिखा है :"अाग्रही बत ! निनीषति युक्तिं यत्रतत्रमतिरस्य निविष्ठा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्रतत्रमतिरंति निवेशम् ।।" हाँ, समालोचकजी की एक दूसरी, बिलकुल नई, ईजादका
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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