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________________ विवाह क्षत्र- प्रकाश । यह जिनसेनके 'जिस मूल श्लोक नं० १६७ का अनुवाद किया गया है वह हरिवंशपुराणके ३३वें सर्गमें निम्नप्रकार से पाया जाता है ::― ६० " धात्री मानुष्यकं प्राप्ता पुरे भविलसाहये । सुदृष्टिश्रेष्टो भार्या वर्तते ह्यलकाभिधा || " कोई भी संस्कृतका विद्वान इस लोकका वह अनुवाद नहीं कर सकता जोकि पं० गजाघरलालजी ने किया है और न इसका वह कोई भावार्थ ही होसकता है। इस श्लोक का सीधा सादा आशय सिर्फ इतनाही होता है कि 'वह धाय ( रेवती ) मनुष्य जन्मको प्राप्त हुई इस समय भद्विलसा नामक नगर में सेठ सुद्दष्टिकी अलका नामकी स्त्री है।' और यह आशय उक्त अनुवादके अन्तिम वाक्य में श्राजाता है, इसलिये अनुवादका शेषांश, जिसमें समालोचकजीका बड़े दर्पके साथ प्रदर्शित किया हुआ वह वाक्यभी शामिल है, मूल ग्रन्थ से बाहर की चीज जान पड़ता है । मूलग्रन्यमें, इस श्लोक से पहले या पीछे, दूसरा कोई भी श्लांक ऐसा नहीं पाया जाता जिसका श्राशय 'रानी नंदयशा' से प्रारंभ होनेवाला उक्तवाक्य होसके * | इस श्लोक से पहले "कुर्वन्निर्नामिकस्तीव" नामका पद्य और बादको गंगाद्या देवकी गर्भे' नामका पद्य पाया जाता है, जिन दोनोंका अनुवाद, इसी क्रमसे -- उक्त अनुवादसे पहले पीछे- - प्रायः ठीक किया गया है। परंतु उक्त पद्य अनुवाद में बहुतसी बातें ऊपर से मिलाई गई हैं, यह स्पष्ट हैं; और इस प्रकारकी मिलावट औरभी सैंकड़ों पद्यां के अनुवाद में पाई जाती है। जो न्यायतीर्थ गजाधरलालजी * देखो देहलीके नये मंदिर और पंचायती मंदिरके हरिवंशपुराणकी दोनों प्रतियोंके क्रमशः पत्र नं० २०७ और १५१ ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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