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________________ विवाह-क्षेत्र प्रकाश । गुण स्थान) है, और अविरतसम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं जो इंद्रियों के विषयों तथा प्रसस्थावर जीवों की हिंसासे विरक्त नहीं होता--अथवा यो कहिये कि इन्द्रियसंयम और प्राणसंयम नामक दोनों संयमों में से किसी भी संयमका धारक नहीं होता- परन्तु जिनेद्र भगवानके वचनों में श्रद्धा जरूर रखता है* । ऐसे लोग भी जब जैन होते हैं और सिद्धान्ततः जैन मंदिरों में जाने तथा जिनपूजनादि करने के अधिकारी हैं + तब एक श्रावकसे, जो जैनधर्मका श्रद्धानी है, चारित्र मोहिनी कर्मके तीघ्र उदयवश यदि कोई अपराध बन जाता है तो उसकी हालत अविरत सम्यग्दृष्टि से और ज्यादा क्या खराब होजाती है, जिसके कारण उसे मंदिरमें जाने प्रादिसे रोका जाता है । जान पड़ता है इस प्रकारके दंडविधान केवल नासमझी और पारस्परिक कषाय भावों से सम्बंध रखते हैं । अन्यथा, जैनधर्म में तो:सम्यग्दर्शनसे यक्त (सम्यग्दृष्टि)चांडालपुत्रको भी 'देव' कहा है-आराध्य बतलाया है और उसकी दशा उस अंगारके सघश प्रतिपादन की है जो बाह्य में भस्मसे पाच्छादित होनेपर भी अन्तरंगमे तेज तथा प्रकाश को लिये हुए है और इसलिये कदापि उपक्षणीय नहीं होता। इसीसे *यथा जो इंदये सुविरदो णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सहहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदोसो ॥२६ .गोम्मटसार। + जिन पूजाके कौन कौन अधिकारी हैं, इसका विस्तृत और प्रामाणिक कथन लेखककी लिखी हुई 'जिनपूजाधिकार मीमांसा' से जानना चाहिये। यथा-सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहम् । देवा देवं विदुर्भस्म गढ़ागारात्मरौजसम् ॥ .-इति रत्नकरण्डके स्वामिसमंतभद्रः ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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