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________________ १५८ विवाह-क्षेत्र प्रकाश। फिकर कीजाती है-कहीं चार चार और कहीं पाठमाठ गोत्र बचाये जाते हैं-और इस तरह पर मामा फफीकी कन्याओं से विवाद करने के प्राचीन प्रशस्त विधानसे इनकार ही नहीं किया जाता बल्कि उनके गोत्रों तकम विवाह करनेको अनुचित ठहराया जाताहै। मालम नहीं इस सब कल्पनाका क्या प्राधार है-यह किस सिद्धांत पर अवलम्बित है-और इन गोत्रोके बचानेसे उस सिद्धान्तकी वस्तुतः कोई रक्षा होजाती है या कि महीं। शायद सगोत्र विवाहको अच्छी तरहसे टालने के लिये ही यह सब कुछ किया जाना हो परन्तु गात्रों की वर्तमान स्थितिमे, वास्तविक दृष्टिसे, सगोत्र विवाहका टालना कहाँ तक बन सकता है, इसे पाठक ऊपरके कथनसे भले प्रकार समझ सकते हैं। हो सकता है कि इस कल्पनाके मल में कोई प्रौढ सिद्धान्त न हो और वह पीछेसे कुछ कारणोंको पाकर निरी कल्पना ही कल्पना बन गई हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि यह कल्पना प्राचीन कालके विचारों और उस वक्तके विवाह सम्बंधी रीति-रिवाजोसे बहुत कुछ विलक्षण तथा विभिन्न हैउसमें निराधार खोचातानीकी बहुलता पाई जाती है और उसके द्वारा विवाहका क्षेत्र अधिक संकीर्ण होगया है । समझ में नहीं पाता जब बहुत प्राचीन कालसे गोत्रों में बराबर अलटा पलटी होती आई है, अनेक प्रकारसे नवीन गोत्रोंकी सष्टि होतो रही है, एक पुत्र भी पिताके गोत्रको छोड़कर अपने में नये गोत्रकी कल्पना कर सकता था और इस तरह पर अपने अथवा अपनी संतति के विवाह क्षेत्रको विस्तीर्ण बना सकता था, तब वे सब बातें बाज क्यों नहीं होसकती-उनके होने में कौनसा सिद्धान्त वाधक है । गोत्र परिपाटीको कायम रखते हुए भी, प्राचीन पूर्वजोंके अनुकरण द्वारा विवाह क्षेत्रको बहुत कुछ विस्तीर्ण बनाया जासकता है। अतः समाजके शुभचिंतक
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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