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________________ गोत्र-स्थति और सगोत्र विवाह । १५७ सगोत्र विवाहका एक बहुत बड़ा प्रमाण है, वहाँ यह भी मालूम होता है कि हरिवंशी राजा 'दसु' के एक पुत्र 'वृहद्भ्वज' की संतत्तिर्मे यदुवंशी राजा उग्रसेन हुआ, दूसरे पुत्र 'सुबसु ' की संततिमें जरासंध हुआ और जरासंधकी बहन पद्मावती उग्रसेनसे व्याही गई । जिजसे जाहिर है कि राजा वसुके एक वंश और एक गोत्र में होने वाले दो व्यक्तियोंका परस्पर विवाह सम्बंध हुआ । और इससे यह जाना जाता है कि उस समय एक गोत्र में विवाह होने का रिवाज था । साथ ही, उक्त पुराणसे इस बात का भी पता चलता है कि पहले सगे भाई बहनोंकी धौलाद में जो परस्पर विवाह सम्बन्ध हुआ करता था उसका एक कारण अथवा उद्देश्य 'गोत्रप्रीति' भी होता था । यथाः नीलस्तस्य सुतः कन्या मान्या नीलांजनाभिधा । कुमारकन्ययोव त्ता संकथा च तयोरिति ॥ ४॥ पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता भविता तयोः । विवादे विवाहोऽत्र गोत्रमीत्यै परस्परम् ॥ ५ ॥ - २३ बाँ सर्ग | इन पद्यर्मे नील और नीलांजना नामके दो सगे भाईबहनों के इस ठहराव का उल्लेख किया गया है कि 'यदि मेरे पुत्र और तुम्हारे पुत्री होगी तो गोत्र में प्रीति की वृद्धि के लिये उन दोनों का निर्विवाद रूपसे परस्पर में विवाह करदेना होगा ' 6 परन्तु श्राजकल गोत्र- प्रीति की बात तो दूर रही, एक गोत्र में विवाह करना गोत्र- घात' अथवा गोत्रघाव' समझा जाता है। जैनियों की कितनो ही जातियोंमें तो, विवाह के अवसर पर, पिताके गोत्रके अतिरिक्त माता, और पिता के मामा आदि तकके गात्रोको भी टालने की माता के मामा, "
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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