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________________ स्वयंवर विधाह। इससे भी यह साफ ज़ाहिर हता है कि स्वयंवरमंडप में घसदेव जी एक राजाकी हैसियत से अथवा राजाके वेषमें उपस्थित नहींथे और इसीसे राहिणोने स्वयंवरमंडपमें किसी गजाको नहीं घरा' इन शब्दों का प्रयोग होसका है। स्वयंवर. मंडपमें स्थित जब सब राजाओंका परिचय दिया जा चुका था और राहिणीने उनमें से किसोको भी अपना वर पसंद नहीं किया था तभी घमदेवजीने वीणा बजाकर रोहिणीकी चिनपत्ति को अपनो भार आकर्षित किया था। अतः समालोचक जीका इस कल्पना और श्रापत्तिमें कुछ भी दम मालम नहीं होता। दूसरी आपत्ति के विषयमें, यद्यपि, अब कुछ विशप लिखने की जरूरत बाकी नहीं रहती, फिर भी यहाँ पर इतना प्रकट करदेना उचित मालूम होता है कि समालोचक जी ने उसमें लेखकका जो वाक्य दियाहै वह कुछ बदल कर रखा है उस में 'अज्ञातकल जाति' के बाद 'रङ्क' शब्द अपनी ओरसे बढाया है और उससे पहले 'एक अपरिचित' श्रादि शब्दों को निकाल दिया है। इसी प्रकारका और भी कुछ उलटफर किया है जो ऊपर उद्धृत किये हुए उदाहरणांश परसे सहज ही में जाना जासकता है। मालूम नहीं इस उलटा पलटीसे समालोचकजी ने क्या नतीजा निकाला है। शायद इस प्रकारके प्रयत्न द्वारा ही श्राप लेखकके लिखनेको "सर्वथा शास्त्रविरुद्ध"सिद्ध करना चाहते हो! परन्तु ऐसे प्रयत्नोंसे क्या होसकता है? समालो. चकजीने कहीं भी यह सिद्ध करके नहीं बतलाया कि वरमाला डालने के वक्त वसुदेवजी एक अपरिचित और अशातकुल-जाति व्यक्ति नहीं थे। जिनसेनाचार्यने तो वरमाला डालनेके बाद भी आपको “कोऽपिगुप्तकुलः" विशेषणके द्वारा उल्लेखित किया है औरत दनुसार जिनदास ब्रह्मवारीने भो आपके लिये "कोपिगढ़ कुलः" विशेषणका प्रयोग किया है, जिससे जाहिर है कि उनका
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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