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________________ उद्देश्य का अपलाप आदि । १३ I " कहना और ठहराना दुःसाहस मात्र होगा । वह कभी इष्ट नहीं होसकता और न युक्ति युक्त ही प्रतीत होता है । इस लिये यही कहना समुचित होगा कि उस वक्त के वे रीति रिवाज भी सर्वश भाषित नहीं थे । वास्तव में गृहस्थों का धर्म दो प्रकारका वर्णन किया गया है, एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । लौकिक धर्म लोकाश्रय और पारलौकिक श्रागमाश्रय होता है । विवाहकर्म गृहस्थोंके लिये एक लौकिक धर्म है और इसलिये वह लोकाश्रित है – लौकिक जनोकी देशकालानुसार जो प्रवृत्ति होतो है उसके अधीन है - लौकिक जनों की प्रवृत्ति हमेशा एक रूप में नहीं रहा करती । वह देशकाल की श्रावश्यकताओं के अनुसार, कभी पञ्चायतियोंके निर्णय द्वारा और कभी प्रगतिशीलव्यक्तिय के उदाहरणों को लेकर बराबर बदला करती है और इसलिये वह पूर्णरूपमें प्रायः कुछ समय के लिये ही स्थिर रहा करती है । यही वजह है कि भिन्न भिन्न देशों, समयों और जातियों के विवाहविधानों में बहुत बड़ा अन्तर पाया जाता है । एक समय था जब इसी भारतभूमि पर सगे भाई बहिन भी परस्पर स्त्री पुरुष होकर रहा करते थे और इतने पुण्याधिकारी समझे जाते थे कि मरने पर उनके लिये नियमसे देवगति का विधान किया गया है +1 फिर वह समय भी आया जब उक्त प्रवृत्तिका निषेध किया गया और उसे अनुचित ठहराया गया । परन्तु उस समय गोत्र तो गोत्र एक कुटुम्ब में विवाह होना, अपने से भिन्न वर्णके साथ शादीका किया जाना और शूद्र ही नहीं किन्तु म्लेच्छों तक की कन्याओं से विवाह करना भी अनुचित नहीं माना * हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाद्यः परः स्यादागमाश्रयः ।। - सोमदेवः । + यह कथन उस समयका है जबकि यहाँ भोगभूमि प्रचलत थो
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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