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________________ ११४ विवाह-क्षेत्र प्रकाश। सदाचार ) से रहित हैं-भ्रष्ट है-इस लिये इन्हें म्लेच्छ कहते हैं, अन्यथा, दूसरे श्राचरणों (असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य, शिल्प और विवाहादि कर्मों ) की दृष्टिसे आर्यावर्त की जनताके समान है (अन्तर्वीपज म्लेच्छोंके समान नहीं)।' ___ बस, इस एक श्लोक पर से ही समालोचकजी अपने उस सब कयन का सिद्ध समझते है जिसका विधान उन्होंने अपने उक्त वाक्यों में किया है ! परन्तु इस श्लोक में तो साफ तौर पर उन म्लेच्छा का धर्म कर्म स वाहभन ठहगया है, और इससे अगलं हा निम्न पद्य में उनके निवासस्थान म्लेच्छखण्डका 'धम कर्म की अभमि प्रतिपादन किया है । अथात् , यह बतलाया है कि वह भूमि धर्म कर्म के प्रधाग्य है-वहां अहिंसादि धर्मों का पालन और सत्को का अनुष्ठान नहीं बनता: इति प्रसाध्य तां भूमिमभूमि धर्मकर्मणाम् । म्लेच्छराजवलैः साई सनानीव्यवृतन्पुनः ।। १४३।। -आदिपुराण, २१वा पर्व । फिर समालोचकजी किस आधार पर यह सिद्ध समझते हैं कि उन म्लेच्छों में हिंसा तथा मांसभक्षणादिक की प्रवृत्ति सर्वथा नहीं है ? हिंसा तो अधर्म ही का नाम है और मांस भक्षणादिक को असत्कर्म कहत हैं. ये दोनों ही जब वहाँ नहीं और वे लोग नीच तथा कदाचरणी भी नहीं तब तो वे खासे धर्मात्मा, सत्कर्मी और आर्यखण्ड के मनुष्यों से भी श्रेष्ट ठहरे, उन्हें धर्म कर्म से वाहभूत कैसे कहा जा सकता है ? क्या धर्म कर्म के और कोई सींग पूंछ होते है जो उनमें नहीं है और इसलिये वे धर्म-कर्म से वहिर्भूत करार दिये गये हैं ? जान पड़ता है यह सब समालोचकजी की विलक्षण समझ का परिपाम है, जो आप उन्हें म्लेच्छ भी मानते हैं, धर्म कर्म से वहि
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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