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________________ १८ युक्त्यनुशासन - - चंवर छत्रादि अष्ट प्रातिहार्यो के रूपमें तथा समवसरणादिके रूप में अन्य विभूतियोंका भी उनके निमित्त प्रादुर्भाव होता है, तो उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि 'ये बाते तो मायावियोंमे - इन्द्रजालियों में भी पाई जाती हैं, इनके कारण आप हमारे महान् पूज्य अथवा आप्तपुरुष नही है ' । और जब शरीरादिके अन्तर्बाह्य महान् उदयकी बात बतलाकर महानता जतलाई गई तो उसे भी अस्वीकार करते हुए उन्होंने कह दिया कि शरीरादिका यह महान उदय रागादिके वशीभूत देवताओं में भी पाया जाता है । अत यह हेतु भी व्यभिचारी है इससे महानता (आप्तता) सिद्ध नही होती ' । इसी तरह तीर्थङ्कर होने से महानताकी बात जब सामने लाई गई तो आपने साफ कह दिया कि 'तीर्थङ्कर' तो दूसरे सुगतादिक भी कहलाते है और वे भी संसार से पार उतरने अथवा निवृ ति प्राप्त करने के उपाय रूप प्रवर्तक माने जाते है तब वे सब भी आप्त- सर्वज्ञ ठहरते हैं, और यह बात बनती नही, क्योकि तीर्थङ्करोंके आगमों में परस्पर विरोध पाया जाता है । अत उनमे कोई एक ही महान् हो सकता है, जिसका ज्ञापक तीर्थङ्करत्व हेतु नही, कोई दूसरा ही हेतु होना चाहिये । ऐसी हालत में पाठकजन यह जाननेके लिये जरूर उत्सुक होंगे कि स्वामीजीने इस स्तोत्रमे वीरजिनकी महानताका किस रूप में १ - ३ देवागम- नभोयान - चामरादि-विभूतय. । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नाऽतस्त्वमसि नो महान् ॥१॥ अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहोदय । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति रागादिमत्सु सः ॥२॥ तीर्थकृत्समयाना च परस्पर विरोधतः । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः ॥३॥ - प्राप्त सीमास
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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