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________________ ४१० युगवीर-निबन्धावली ___ इस पर विद्यार्थी ( जिसे पहले ही अपनी सदोष परिभाषा पर खेद हो रहा था ) नतमस्तक होकर बोला-'आपने जो कुछ कहा है वह सब ठीक है। आपके इस विवेचन, विकल्पोद्भावन और स्पष्टीकरणसे हम लोगोका बहुतसा अज्ञान दूर हुआ है । हमने जो छोटे-बडेके तत्त्वको खूब अच्छी तरह समझ लेनेकी बात कही थी वह हमारी भूल थी । जान पडता है अभी इस विषयमे हमे बहुत कुछ सीखना-समझना बाकी है । लाइनोके द्वारा आपने जो कुछ समझाया था वह इस विषयका 'सूत्र' था, अब आप उस सूत्रका व्यवहारशास्त्र हमारे सामने रख रहे है। इससे सूत्रके समझनेमे जो त्रुटि रही हुई है वह दूर होगी, कितनी ही उलभने सुलझेगी और चिरकालकी भूले मिटेगी। इस कृपा एव ज्ञान-दानके लिये हम सब अापके बहुत ही ऋणी और कृतज्ञ है ।' मोहनके इस कथनका दूसरे विद्यार्थियोने भी खडे होकर समर्थन किया। घटेको बजे कई मिनट हो गये थे, दूसरे अध्यापकमहोदय भी कक्षामे आ गये थे, इससे अध्यापक वीरभद्रजी शीघ्र ही दूसरी कक्षामे जानेके लिये बाध्य हुए।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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