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________________ २८ : धर्मबिन्दु अतः इन अनर्थों के कारण सुज्ञजन कुलीन तथा शीलवती स्त्रियोसे ही अपना संबन्ध रखना पसंद करेंगे। अब गृहस्थके तीसरे गुणका वर्णन करते हैं (न्याय आचरण व योग्य विवाह पहेले दो है )-~ तथा-घाटमाधामीतता इति ॥१३॥ मूलार्थ-प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष सब उपद्रवोंसे सावधान रहना चाहिए। विवेचन-जगतमें अन्याय व पापाचार होता है, उसमेंसे कईका बुरा फल मिल जाता है। कई ऐसे हैं जिनका बुरा फल नहीं दीखता । ऐसे सब पापकर्मोंसे सावधान तथा उनके फलोंसे डरते रहना चाहिए। दृष्टा-ऐसे फर्म जो दीखते हैं जिनको संसार बुरा कहता है तथा जिनका फल भी राजदंड, अपमान, व टीका आदि प्रत्यक्ष दीखते हैं, जैसे अन्याय व्यवहार, जूआ, परस्त्रीगमन, चोरी आदि, जिनसे विडंबनायें भी सहनी पडती है । अदृष्टाश्च-दूसरे ऐसे कर्म हैं जो प्रत्यक्ष फल नहीं देते, पर वे बाढमें परभवमे कष्टदायक सिद्ध होते हैं व जिनका धर्मशास्त्रोमें निषेध है, ऐसे कर्मोंसे डरते रहना चाहिए । जैसे मद्य-मांससेवन, अशुद्ध विचार, क्रोध आदि जो अशुभ कर्मबन्धके कारण हैं, उनसे नरकादि महादुःख भोगने -पड़ते हैं ऐसी वस्तुओंसे डरे । संक्षेपमें कहे तो हमे शुद्ध मार्ग पर चलना चाहिए व आत्माको मलिन न होने देकर उसे शुद्ध रखते रहना चाहिए।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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