SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 502
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६६ : धर्मविन्दु विवेचन-सः-वह जीव, तत्र-सिद्धक्षेत्रमें, दुःख विरहातशरीर व मनको होनेवाले सब कटोसे रहित, अन्यन्तसुखसंगत:आत्यंतिक व ऐकान्तिक सुखरूप सागरके वीचमें मम होकर (रहते हैं), अयोग:-मन वचन व कायाके व्यापारसे रहित, योगीन्द्रवन्यायोगीन्द्रो द्वारा वन्दन करने योग्य, उससे भी त्रिजगदीश्वरः-द्रव्य तथा भाव दोनोंकी अपेक्षासे सब लोगोंके ऊपर रहनेवाले तीनों जगतके परमेश्वररूप । । वहां सारे दुःखका नाश हो जाता है, अत्यन्त सुख होता है, मन, वचन, व कायाके सब काम बंध हो जाते हैं या होते ही नहीं। अतः अयोगी है । और तीन जगत्के परमेश्वर बनते हैं । सव योगी जन उनको वदन करते हैं तथा सिद्ध भगवानका ध्यान करते हैं। वे शाश्वत आनंदमे सदाकाल रहते हैं। ____ यहां 'विरह' शब्द आया है वह ग्रन्थके कर्ता हरिभद्रसूरिको बताता है। वे अपने सब ग्रन्थों के अन्तमें 'विरह' शब्दका प्रयोग करते हैं। इस प्रकार मुनिचन्द्र सरि द्वारा धर्मविन्दुकी टीकाका धर्मफल विशेष विधि नामक आठवां अध्याय समाप्त हुआ टीकाकार मुनिचन्द्रसूरि ग्रन्थ समाप्ति पर लिखते हैंनाविक मुदारतां निजधियो वाचां न वा चातुरी, मन्ये नापि च कारणेन न कृता वृत्तिर्मयाऽसौ परम् ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy