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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४६५ पूर्वावधवशादेव, तत्स्वभावत्वतस्तथा । वात् , समयेनानुगुण्यतः॥४७॥ संस्कार वश कर्मरहित होने पर भी ऊर्ध्वगमन करता है। और उस प्रशारके स्वभावसे तथा अनंत वीर्य युक्त होनेसे एक समयमें समश्रेणिके आयसे परम पदको पाता है ॥४७॥ विवेचन-पूर्वावधवशाव-पूर्व ससार अवस्थाके गमन आवेशसे तत्स्वभावत्वतः-यह ऊर्ध्वगमनके स्वभावसे बन्धनयुक्त होकर अरंडीके बीजकी तरह ऊपर जानेका उसका स्वभाव होनेसे, अनन्तवीर्ययुक्तस्वात्-अपार सामर्थ्यसंपन्न होनेसे, समयेनानुगुण्यतः-शैलेशी अवस्था पाकर एक ही समयमें आकाशरूप क्षेत्रमें समश्रेणिद्वारा (परम पदको जाता है)। संसार अवस्थामें गमन करनेका समय होनेसे कर्म रहित जीव भी गमन करता है । कर्ममल रहित होकर जीव अपने स्वभावसे ही ऊर्ध्वगमन करता है तथा सारे लोकालोकके आकाशको पार करके लोकांव तक पहुंचता है। उसे अनंत सामर्थ्य होनेसे भी वह एक ही समयमें समश्रेणिमें परमपद मोक्षको पहुंच जाता है । स तत्र दुःखविरहादत्यन्तसुखसंगतः। तिष्ठत्ययोगो योगीन्द्रवन्धस्त्रिजगदीश्वरः ॥१८॥ मूलार्थ-दुःखके विरहसे, अत्यंत सुखसहित, योगीन्द्रों द्वारा वंदनीय तीन जगतके परमेश्वर अयोगी सिद्ध भगवान मोक्षमें स्थित है ॥४८॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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