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________________ धर्मफल विशेष देशना विधि : ४५१ ज्ञानावरण आदि कोका उदय ही पुनर्जन्मका बीज है। कोके होनेसे ही बार बार जन्म लेना पड़ता है। जब सब कर्मोंका नाश हो नाता है तो जन्म कैसे हो सकता है ? अकर्मा घासादिति ॥३१॥ (५१२) मूलार्थ-चे जीव कर्मरहित होने हैं।३१॥ विवेचन-जो जीव निर्वाण प्राम करते हैं वे क्रोंसे रहित होते हैं। उनको पुन' कोई कर्म नहीं लगता। वह भले अकर्मा हो पर उसे पुनर्जन्म आदि होता है ? उसका उत्तर देते हैं___ तद्वत एव तद्ग्रह इति ॥३२।। (५१३) मूलार्थ-कर्मवालेको ही पुनर्जन्म आदि होते हैं ॥३२॥ विवेचन-तद्वत एव- कर्मवाले जीवोंको ही, तद्ग्रहः- पुनर्जन्म आदि होना। जो जीव कर्ममहित है वे ही पुन जन्म धारण करते हैं। जो जीव कर्मरहित हैं उनको जन्म मरण नहीं होता। अतः निर्वाणप्राप्त जीवको जन्म मरण नहीं होता। यदि कर्मवालेको ही जन्म मरण होता है तो प्रथम जीवने कर्म कब किया जिससे जन्म धारण करना पड़ा उसके उत्तरमें कहते हैंतदनादित्वेन तथाभावसिद्धेरिति ॥३३॥ (५१४) मूलार्थ-कर्मके अनादिपनसे उपरोक्त भाव (जन्म ग्रहण आदि)की सिद्धि होती है ॥३२॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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