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________________ ४५० : धर्म विन्दु विवेचन - देहधारी प्राणी देह आदिसे निवृत्त होकर निर्वाणको चला जाता है। जीव सिद्धिक्षेत्र में प्रवेश करता है । सब उपाधि व देहसे मुक्त होकर आत्माको अपने असली स्वरूपका ज्ञान होता है उस अवस्थाको निर्वाण अवस्था कहते हैं । चरमदेही व तीर्थकर इन सव कर्मोंको नाश कर सिद्धिक्षेत्र में जीवके अपने स्वरूपमें रहनेके लिये जीव वहां चला जाता है । तत्र च पुनर्जन्माद्यभाव इति ||२८|| (५०९) मूलार्थ - मोक्षप्राप्ति पर पुनर्जन्मका अभाव होता है ॥२८॥ विवेचन - मोक्ष हो जाने पर निर्वाण पालने पर जीवका दूसरी तीसरीवार जो बराबर जन्म होता है वह जन्म, जरा, मृत्यु आदि सब अनर्थीका पूर्णतः विच्छेद हो जाता है । वीजाभावतोऽयमिति ॥ २९ ॥ (५१० ) मूलार्थ - वह चीजके अभाव से होता है ||२९|| विवेचन - पुनर्जन्म आदि न होनेका कारण बताते हैं । जैसे चीजके बिना अंकुर नही होता वैसे ही कर्मवीजके सर्वथा नष्ट हो जाने पर मुक्त आत्माका पुनर्जन्म आदि नहीं होता । कर्मविपाकस्तदिति ॥३०॥ ( ५११) मूलार्थ - कर्म विपाक ही बीज है ॥ ३० ॥ विवेचन- कर्मणां - ज्ञानावरण आदि कर्मोंका, विपाकः - उदय, तत् - पुनर्जन्म आदिका बीज ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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