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________________ १० : धर्मविन्दु "तत्कारी स्यात् स नियमात्, तद्धेपी चेति यो जडः। आगमार्थे तमुल्लइध्य, तत एवं प्रवर्त्तते" ॥१॥ -(योगबिन्दु श्लोक २४०) —जो मूर्ख शास्त्र या शास्त्रनियमोके विरुद्ध आचरण करे वह शास्त्र व शासोक्त धर्मके विरुद्ध होता है क्योंकि शास्त्रनियमके उल्लघनसे उसकी प्रवृत्ति शास्त्रविरुद्ध होती है। मैत्र्यादिभावसंयुक्तं-मैत्री आदि भावो सहित । ऐसे भाव चार है- मैत्री, प्रमोद, करुणा तथा माध्यस्थ्य-इन भावनाओ सहित बाह्य चेष्टाएँ । प्राणी मात्रके प्रति सममाव तथा मित्रतामैत्रीभाव, अपने से अधिक गुणवानके प्रति हर्ष या प्रमोद रखना, जो दुःखी हो उस पर करुणा भावना रखना और अविनयी या दुर्गुणीके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना। जो अनुष्ठान अविरुद्ध वचनद्वारा शास्त्रमें कहा गया है उसीके अनुसार श्रीजिन भगवान्द्वारा प्रणीत शास्त्रमें उक्त ऐसे वचनो द्वारा कहा हुआ अनुष्ठान मैत्री आदि-इन चारो भावों सहित हो वही वस्तुतः धर्म कहा है। ___ धर्मरूपी कल्पवृक्षके मोक्ष व स्वर्ग फल हैं, मैत्री आदि भाव मूल है। धर्म दुर्गतिमें पड़े हुए जीवोको बचाने और स्वर्ग आदि सुगतिमें ले जानेवाला है । सब सत्यभावनाओंके जाननेवाले बुद्धिमान पुरुष इसे ही धर्म कहते है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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