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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ९ श्रीजिनेश्वर भगवंतद्वारा प्रणीत है । वचनका कहनेवाला जो उसका अंतरंग निमित्त है वह शुद्ध है अत' वचन अविरुद्ध हैं । राग, द्वेष व मोहके वशमें होनेसे निमित्त अशुद्ध होता है क्योकि ऐसे निमित्तसे अशुद्ध वचनकी प्रवृत्ति होती है । श्रीजिनेश्वर भगवंतमें ऐसी अशुद्धि नहीं है, न हो सकती है। 'जिन' राग, द्वेष और मोह के जीतनेवाले है अतः उनका वचन अविरुद्ध है । जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। नीम के बीजसे गन्ना पैदा नहीं होता । अतः दुष्ट कारणसे प्रारंभ किया हुआ कार्य अदुष्ट नही हो सकता । इसी कारण जो 'जिन' नहीं है उनके द्वारा कथित वचन अविरुद्ध वचन नहीं है । वह राग-द्वेष पूर्ण होनेसे बच्चन भी अप्रमाण है । 1 । यदि कोई कहे कि अपौरुपेय वचन अविरुद्ध है तो वह अयुक्त है । जो वचन है वह बोला हुआ ही है। उसका अस्तित्व पुरुषके होने पर ही होता है । अत. अपौरुपेय वचन ध्वनिसे कभी उपलब्ध नहीं होता । अदृष्टवचन, जो पिशाच आदि अदृष्ट रह कर बोले तो ऐसे माने हुए अपौरुपेय वचनसे मनस्वी पुरुष निश्चयपूर्वक प्रवृत्ति कैसे कर सकते हैं ? | यथोदितं - इस प्रकार काल आदिकी आराधनाके अनुसार कहा गया तथा शास्त्रमें प्रतिपादित अविरुद्ध वचनके अनुसार कहा हुआ जो अनुष्ठान है, उसमें प्रवृत्ति करना ही धर्म है । जो अन्यथा 1 या भिन्नप्रवृत्ति है वह शास्त्रविरुद्ध है अत धर्म नहीं है । कहा है
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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