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________________ ४०२ : धर्मविन्दु प्रवृत्यङ्गमदः श्रेष्ठं, सत्त्वानां प्रायशश्च यत् । आदौ सर्वत्र तद्युक्तमभिधातुमिदं पुनः ॥३०॥ मूलार्थ-सव कार्योंमें प्राणियोंकी प्रवृत्ति होनेका कारण शायः उसका फल है अतः उसे कहना श्रेष्ठ है अतः प्रारंभमें संक्षेपसे और अब विस्तारसे कहना युक्त है ।।३८॥ विवेचन-प्रवृत्यङ्ग-प्रवृत्तिका कारण, अद:-फल, सत्वानांफलकी इच्छावाले प्राणी विशेपोके लिये, प्रायशा-अक्सर करके, आदौ-पहले ही, सर्वत्र-सब कामोंमें, तयुक्तं-अतः उचित है। अभिधातुं-कहनेको । ... . ..... .. . . ___फैलकी इच्छाँवाले प्राणियोंको प्रवृत्ति करनेके लिये मुख्य कारण फल है अतः धर्ममें रुचि र प्रवृत्ति करानेके लिये-पहले धर्मका फल कहा । यदि विस्तारसे धर्मका--फल-पहले कहा होता तो शस्त्रके सिद्धांत बहुत देर बाद कहने पडते, उससे कहनेमें नीरसता आती, अतः शास्त्र सुननेमें अनादर होनेका प्रसंग.आता 1. इस कारण पहले संक्षेपमें कहा और अब विस्तारसे फलको कहते हैं।. . यथा विशिष्टं देवसौख्यं, यच्छिवसौख्यं च यत्परम् धर्मकल्पद्रुमस्येदं, फलमाहुर्मनीषिणः ॥३९॥ . मूलार्थ-देव संबंधी महान् सुख तथा मोक्षरूपी उत्कृष्ट सुख धर्मरूपी कल्पवृक्षके फल है ऐसा बहुत बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं ॥३९॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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