SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सातवां अध्याय । । अब सातवां अध्याय प्रारंभ करते हैं, उसका यह प्रथम फलप्रधान आरम्भः, इति सल्लोकनीतितः। , . संक्षेपादुक्तमस्येदं, व्यासतः पुनरुच्यते ॥ ३७॥ । मूलार्थ- सत्पुरुषोंकी नीति फलप्रधान कार्य आरंभ करनेकी है । अतः धर्मका यह फल हैं ऐसा संक्षेपमें 'पहले बताया है उसे विस्तारसे अब कहते हैं। ॥३७॥ . ' विवेचन- आरम्भः- धर्म आदि संबंध प्रवृत्ति करना, सल्लोकनीतितः- शिष्टजनों द्वारा आचरण किया जाना, व्यासत:विस्तारसे पुनः कहना। . . . . .: . ' शिष्टजनोंका यह आचार है कि वे धर्मादिक ऐसी प्रवृत्ति करते है जिसमें फल प्रधान है। इस कारण ग्रन्थकारने 'धर्मका यह फल है, इस प्रकार संक्षेपमें ग्रन्थके शुरुमें 'धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः श्लोक द्वारा कहा है उसे (धर्मके फलको) अब विस्तारसे कहते हैं। यदि अब धर्मका फल विस्तारसे कहते हो तो पहले संक्षेपसे क्यो कहा कहते हैं
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy