SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ७ धनदो धनार्थिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥२॥ वचनाद् यदनुष्ठानमविरुद्धाद् यथोदितम् । मैञ्यादिभावसंयुक्तं, तद्धर्म इति कीर्त्यते ॥३॥ मूलार्थ-धर्म, धनकी इच्छा करनेवालोंको धन देनेवाला है, कामाभिलापी जनोंको सभी कामभोग देनेवाला है तथा परंपरासे मोक्षका साधक है ॥२॥ परस्पर अविरुद्ध वचनसे शास्त्रमे कहा हुआ मैत्री आदि भावनासे युक्त जो अनुष्ठान है, वह धर्म कहलाता है ॥३॥ विवेचन-धनदः-धनको देनेवाला। धनका अर्थ अन्न, क्षेत्र, वस्तु, द्विपद (सेवक ), चतुष्पद ( पशु) तथा हिरण्य ( चन्दन ), स्वर्ण, मणि, मोती, शंख, प्रवाल आदि सब है। वह धन कुबेरकी समृद्धिसे प्रतिस्पर्धा करनेवाला है। साथ ही जो तीर्थ आदिमें उपयोगमें आ सकें व जिसका फल मिल सके वही वस्तुतः धन है। धनार्थिनां- संसारमें धन ही सब कुछ है तथा धर्मके सिवाय संसारमें कुछ भी नहीं है, ऐसे समझनेवाले तथा धनकी बहुत इच्छा रखनेवाले पुरुषोको, प्रोक्तः -शास्त्रोंमें कहा है। कामिनां-काम अत. कामना-कामकी इच्छावालोको, सर्वकामदः कामभोगकी सब वस्तुएँ देनेवाला-इच्छित और योग्य वस्तुएँ देनेवाला, इस ससारकी व देवताओकी ऋद्धि को देनेवाला है। - धर्म एव-धर्म ही, अपवर्गस्य-मोक्षका-जन्म, जरा व मृत्यु
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy