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________________ ६ : धसंधिन्दु धर्मशास्त्रमें व्याप्त है जो यहां साररूपमें दिया है। जैसे दवाका अर्क निकाला जाता है वैसे यह धर्मशास्त्रोमेंसे सारको खींचकर सामने रखा है। ग्रन्थकी रचनामें चार बातें मुख्य होती है-मंगलाचरण, नाम, प्रयोजन और फल । मंगलाचरण और नाम इस पहले श्लोकमें दिये हैं। प्रयोजन व फल टीकाकार बतलाते हैं - प्रणम्य परमात्मानं यह मंगलाचरण है। प्रभुको वन्दन करना सब विघ्नोंको हरनेवाला है। प्रभुके प्रणामसे सब अमंगल दूर हो जाते है । धर्मविन्दु यह इस ग्रन्थका नाम है वह उपमेय है । इस ग्रन्थमें धर्मका एक विन्दु 'अवयव' या 'अग' कहा है। इस परसे ग्रन्थका 'धर्मबिन्दु' नाम रखा है। इस ग्रन्थकी रचना का प्रयोजन प्राणियो पर अनुग्रह करना है । इस ग्रन्थसे ससारके दुःखसे पीडित प्राणियोका उपकार होगा । इस ग्रन्थका फल मुक्तिकी प्राप्ति है। ग्रन्थसे श्रोता या वाचकोको धर्मकी प्राप्ति होकर उनका कल्याण होगा, धर्म प्राप्तिसे अन्ततः मुक्ति होगी। ग्रन्थकारको भी परोपकार होनेसे अन्ततः धमकी उत्कृष्टता होकर मोक्षसुख मिलेगा। यह एक कुशल अनुष्ठान है और कुशल अनुष्ठानका फल मोक्ष है। ___अब धर्मका हेतु, स्वरूप व फल कहते है-फलप्रधानाः प्रारम्भा मतिमतां भवन्तीति-बुद्धिमान् मनुष्य फल देनेवाले कार्योंको ही करते हैं । अतः पहले धर्मका फल कह कर हेतुशुद्धिद्वारा धर्मका स्वरूप कहते हैं -
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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