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________________ ३८४ धर्मविन्दुः . . . . गूलार्थ-सद्भावमें चित्त, लगानेसे (यथाशक्तिः प्रवृत्ति होती है), ॥५.३।। . विवेचन-जो सत्यकार्य वह अपनी शक्ति कर सकता है। ऐसे सत्कार्यमें अपना चित्त लगानेसे मनुष्य अपनी-शक्तिके अनुसार फार्य कर सकता है यथाशक्ति कार्यमें चित्त रखनेसे वह. प्रवृत्ति.भी. बरावर हो,सकती है इतरथाऽतध्यानोपपत्तिरिति ॥५४॥ (४२१) - मूलार्थ-शक्ति उपरांत करनेसे आर्त ध्यानका प्रसंग आता है॥५४॥ ..... ... ..:-: ‘विवेच इतरथा अनुचित । कार्यके आरंभसे, उपपचिः प्रसंग आना अनुचित कार्यको प्रारंभ करनेसे, अपनी शक्तिसे अधिक काम करनेसें, वह नहीं कर सकनेसे आध्यानका अवसर आता है। अनिच्छा या शक्ति उपरांत कार्यमे आध्यानकाप्रसंग आ जाता है। मनमे कुविचार ऊठते है। अकालोत्सुक्यस्यत्तित्वतस्तत्वादिति ॥५५॥ (१२२) ""मूलार्थम् अकाल उत्सुकता वस्तुतः आर्तध्यान ही है।।५५ - विवेचन-समय अनुकूल न हो तब कालके उचित कार्यका' त्योग करके उत्सुक होकर जो कार्य किया जाय, उस कार्यमें व्यवंहारसे धर्म ध्यान कहलाने पर भी वस्तुतः उसका स्वरूप आतध्यान" ही होता है । जैसे. जो अपनी इंद्रियोंको वशमैं-नि. कर सके वह
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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