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________________ ४ : धर्मविन्दु मैं अपने ज्ञानसे भव्य जनोके उपकारार्थ इस 'धर्मविन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थकी, जिसके पढोंमें अति विरल' अर्थ समाये हुए हैं, उस टीकाकी रचना करता हूं || प्रणम्य परमात्मानं, समुद्धत्य श्रुतार्णवात् । धर्मविन्दु प्रवक्ष्यामि, तोयविन्दुमिवोदधेः ॥१॥ मूलार्थ-श्रीअरिहन्त परमात्माको नमस्कार करके समुद्र में से जलविन्दुकी भांति, शास्त्र सिद्धान्तरूपी समुद्र से 'धर्मके विन्दु'को निकाल कर इस ‘धर्मविन्दु प्रकरण' नामक ग्रन्थकी रचना करता हूं ॥१॥ विवेचन प्रणम्य-त्रिविध वन्दन करके-कायासे नमस्कार, वाणीसे स्तुति व मनसे चिन्तन--इस तरह मन, वचन व काया तीनोंसे भगवानके स्वरूपको मनन करके, प्रभुको वन्दन करके, परमात्मान-अतति-अर्थात् निरन्तर भिन्न भिन्न पर्यायोको प्राप्त होनेवाला आत्मा या जीव कहलाता है । वह जीव परम और अपरम इस त्रह दो प्रकारका है। केवली सिद्ध व अरिहन्त ये' परमात्मा है और अन्य-ससारी जीव अपरमात्मा हैं । परमात्मा वह है जो समस्त कर्मरूपी मलका नाश करनेसे प्राप्त विशुद्ध ज्ञान केवलज्ञानके बलसे सकल लोकालोकको देखता है-जो इस जगतके प्राणियोंको संतोष देनेवाला है, जिसकी इन्द्रादि देवगण अष्ट प्रातिहार्योंसे - - - २'मूल प्रन्थ सूत्रबद्ध होनेसे विरल पदोंके टीकाकी आवश्य
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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