SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || प्रथम अध्याय ॥ शुद्ध न्यायका अनुसरण करके जिन्होने ज्ञानादि संपत्तिको अपने वशीभूत कर लिया है, और जो परम पद (मोक्ष) को प्राप्त हो चुके हैं; ऐसे श्रीजिनप्रभु' -तीर्थंकर भगवानको नमस्कार हो । t अभाइ सागर समान महान् शास्त्रका पारायण कर ( शास्त्र रूप सागर के रहस्यरूप नलको पीकर ) के जिन्होंने अपने स्वरूपको पुष्ट व गंभीर कर लिया है तथा ऐसे प्राचीन आचार्यस्वरूप मेघोने इस संसारके तापका हरण कर लिया है उन आचार्य मेघों की सदा जय हो । जिसके स्मरणरूप अंजनको सज्जन पुरुष अपने चित्तरूप चक्षुमें लगाकर दिव्य आलोक प्राप्त करके हृदयरूप भूमिके मध्य में समाये हुए गंभीर अर्थवाले प्रवचनरूप रत्नभंडारको शीघ्र ही देख कर निकाल सकते है ऐसी भारती देवी ( परमात्माकी वाणीरूप सरस्थती-) को मैं नमस्कार करता हूं । १. यहा टीकाकारने निनप्रभ नामक- अपने गुरुको भी नमस्कार कर लिया है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy