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________________ ३४४ धर्मविन्दु तथा-अन्ते संलेखनेति ॥८३।। (३५१) मलार्थ-और अंतकालमें संलेखना करे ।।८३॥ विवेचन-अन्ते-मृत्युके समीप आने पर, संलेखना-शरीर व कपायोंको तपद्वारा कृश करना । आयुष्यका अंत जानकर या शरीरके वेकार हो जाने पर साधु सलेखना करे। तपसे शरीर व भावसे कपायोंको कम करे । शरीर व पाय दुर्बल कर । उसमें-- संहननाघपेक्षणमिति ॥८४।। (३५२) मलार्थ-अपने सामर्थ्यकी अपेक्षा रखे ॥८४॥ विवेचन-शरीरसामर्थ्य, अपनी चित्तवृत्ति तथा आसपासके अन्य साधुओंकी सहायताका विचार करके संलेखना करना । शरीर शक्तिके अनुसार तप करे । इनद्रव्य व भाव दो संलेखनामेंसे कौनसी ज्यादा करने लायक हैभावसंलेखनायां यत्न इति ॥८॥ (३५३) मृलार्थ-भाव संलेखनाका प्रयत्न करना ।।८५॥ विवेचन-कपाय और इंद्रियके विकारोंको कम करनेके हेतुसे भावसंलेखना करे। द्रव्य संलेखना करनेका हेतु भी भावसंलेखना ही है । तात्पर्य यह कि मोक्षकी इच्छावाला भिक्षु-साधु प्रतिदिन मृत्युके समयको जाननेका प्रयत्न करे। मृत्युका समय जाननेके लिये शास्त्र, देवताके वचन, खुदकी सुबुद्धि और उस प्रकारके अनिष्ट स्वप्न आदि अनेक उपाय हैं जो शास्त्रमें व लोकमें प्रसिद्ध है उस प्रकार समय जान लेने पर वारह वर्ष , पहलेसे ही
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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