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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३४१ - मोक्ष मार्ग से भ्रष्ट न हों तथा कर्मकी निर्जरा हो इसके लिये परीषद सहन करे । तथा - उपसर्गातिसहन मिति ||७७|| (३४५) मूलार्थ - और उपसगको अति सहन करना ||७७ || विवेचन-धर्ममार्ग में प्रयाण करते हुए जो संकट आते हैं वे उपसर्ग कहलाते हैं या पीडासहित जो पुरुष वेदना या कष्ट दे वह उपसर्ग है । वह चार प्रकारके हैं - दिव्य (देव) संबंधी, मनुष्यसंबंधी, तिर्यचसंबंधी और आत्मासंबंधी । जब पुरुष सब कर्मोंसे छूटनेकी कोशिश करता है तो सब कर्म एकदम आकर कष्ट देते हैं इस प्रकार तथा उसके सद्गुणोंकी कसौटीके लिये भी उपसर्ग होते हैं। लब ये चार प्रकारके या इनमेंसे एक उपसर्ग हो तो मनका समभाव नहीं खोना चाहिये । सहनशीलता से पूर्वोपार्जित कर्मका फल समझ कर उसे जीते तथा सन्मार्गसे डीगना नहीं । संसार कष्टमय है और कष्टको सहन न करनेसे मूढता मालूम होती है। कहा है कि"संसारवर्त्यपि समुद्विजते विपद्भ्यो, यो नाम मूढमनसां प्रथमः स नूनम् । अम्भोनिधौ निपतितेन शरीरभाजां, संसृज्यतां किमपरं सलिलं विहाय ? ॥१९२॥ — जो संसारमें रह कर टु खसे डरता है वह प्रथम मूर्ख है या महामूर्ख है । जो समुद्रमें गिर गया है उसे पानी छोडकर अन्य किसका संसर्ग होगा ? अतः कष्ट होगा ही | I तथा - सर्वथा भयत्याग इति ||१८|| (३४६)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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