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________________ ३४० : धर्मविन्दु "अस्मिन् हृदयस्थे सति, हृदयस्थस्तत्त्वतो मुनीन्द्र इति । हृदय स्थिते च तस्मिन् नियमात् सर्वार्थसंसिद्धिः ॥१९१॥ " -जब प्रभुका वचन हृदय में है तो वास्तवमें प्रभु ही हृदयमें हैं । जब प्रभु ही हृदयमें हैं तो निश्चय ही सर्व अर्थकी सिद्धि हुई ऐसा समझे । तथा - समशत्रु मित्रतेति ॥७५॥ (३४३) मूलार्थ - शत्रु व मित्रमें समान भाव रखना ||७५|| विवेचन - साधुको शत्रु तथा मित्र के प्रति समान परिणाम रखना चाहिये | शत्रु तिरस्कार करे तथा मित्र स्तुति तथा चंदन करे तब भी साधु एकभावसे देखे । वह सोचे कि दोनोंको इससे संतोष मिलता है । मै तो दोनोके कार्य के लिये निमित्तमात्र हूं। मुझे किसीसे भी काम नहीं । मेरे कोई भी न ज्यादा है न कम है मर्थात् मेरे लिये बराबर है - ऐसा सोचे । एक पर राग व एक पर द्वेष न रखे। दोनोका कल्याण हो ऐसी प्रवृत्ति करे । 1 तथा - परीषहजय इति ॥७६ || (३४४) मूलार्थ और परीपहको जीते ॥७६॥ विवेचन-क्षुधा, पिपासा आदि बाईस परीपह हैं । इन सबको जीतना चाहिये | या हराना चाहिये पर स्वयं इनसे न हारे । इन सबको समभावसे सहन करके कर्म निर्जरा करे । दर्शन परीषदको सहना या जीतना सम्यग् मार्ग या मोक्षमार्गसे पतित होनेसे बचानेका है और बाकी परीपह कर्मकी निर्जराके लिये हैं। कहा है कि" मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषद्दाः ।"
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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