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________________ ३३४ : धर्मविन्दु कही हुई हैं ऐसा सोच कर क्रियायें करे । सव धर्म कार्योंमें प्रवृत्ति इसी धारणासे करे । वह भगवान द्वारा कर्तव्यरूपमें कही हैं अतः करनी हैं । पुण्य व पाप स्वर्ण व लोहेकी वेडी समान हैं जो दोनो वन्धनयुक्त हैं, अतः आसक्ति रहित निष्काम वृत्तिसे कर्म करना चाहिये। तथा-विधिना स्वाध्याययोग इति ॥६०॥(३२८) मूलार्थ-और विधिवत् स्वाध्याय करे ॥६०॥ विवेचन-काल, विनय आदि शास्त्रोक्त विधिसहित स्वध्याय करे । पढना, सुनना व मनन करना, उसका समय तथा विनयपूर्वक वाचना लेना आदि विधिसे करे । गुरुका विनय व बहुमान करनेका नियम पाले । तथा-आवश्यकापरिहाणिरिति ॥६१।। (३२९) मूलार्थ-आवश्यक कार्योंका भंग नहीं करना ॥६१॥ विवेचन-आवश्यक-समयके अनुसार करनेयोग्य नियमित कर्तव्योंका जैसे पडिलेहण आदि, अपरिहाणिः-तोडना नहीं भंग न होने देना। जिस जिस समय पर साधुको करनेके जो जो अनुष्ठान है वह उसके आवश्यक कर्म हैं, उनको अवश्य ही करना चाहिये । वे साधुपनेके मुख्य चिह्न हैं। उसके लिये दशवकालिक सूत्रमें लिखा है "संवेगो निव्वेओ, विसयविवेगो सुसीलसंसग्गी।' आराणा तवोनाणदसणचारित्तविणओ य ॥१८६॥"
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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