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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३३३ तथा - निदान परिहार इति ॥ ५८ ॥ (३२६) मूलार्थ और नियाणाका त्याग करना चाहिये ॥ ५८ ॥ विवेचन - देवता या राजादिककी ऋद्धि प्राप्त करनेकी इच्छा करना निदान या नियाणा हैं । धर्मरूपी कल्पवृक्षका मूल सम्यग् - दर्शन है। ज्ञान व विनय उसका थड हैं। दान गील, तप और भावना उसकी डालिया हैं । देव व मनुष्यके सुख उसके पुप्प हैं तथा मोक्ष उसका फल है अतः हमेशां लक्ष्य मोक्षका रखना । नियाणा या निदान करना धर्मरूपी कल्पवृक्षको छेदना है । अतः उस निदानका त्याग करे। ऐसी ऋद्धि आदिकी वांछा (इच्छा) न करे । मोक्षप्राप्ति के लिये किये गये प्रयत्नके फलस्वरूप अन्य ऋद्धि अपने आप प्राप्त हो जाती है जैसे अन्नकी खेतीमे घास | अतः निष्कामवृत्ति रखें । निदानका परिणाम बुरा है । कहा है कि ' यः पालयित्वा चरणं विशुद्धं करोति भोगादिनिदानमज्ञः । ही वर्द्धयत्वा फलदानदक्षं, स नन्दनं भस्मयते वकः। १८५।" -- जो अज्ञ शुद्ध चारित्रका पालन करके भोग आदिकी प्राप्तिका निदान करता है वह मन्दबुद्धि सुंदर फल देनेवाले नन्दन बनको बढा करके भी जला देता है। तंत्र क्या करे, वह कहते हैं विहितमिति प्रवृत्तिरिति ॥५९|| (३२७) मूलार्थ - सब क्रियायें शास्त्रोक्त है अतः प्रवृत्ति करना चाहिये ॥ ५९ ॥ विवेचन - सब धर्म क्रियाये भगवान द्वारा निरूपित हैं, शास्त्र में
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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