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________________ ३१८ : धर्मपिन्छ जड़ हैं। स्थूल शरीर होनेसे भिक्षाटन, वंदन तथा विहार आदि करनेमें असमर्थ हो वह शरीरनड तथा साधु क्रियाके पालनमें असमर्थ वह करणजड । अर्थात् पांच समिति, तीन गुप्ति, प्रतिक्रमण, पडिलेहण आदि संयमकी क्रियाएं उपदेश करने पर भी न कर सके, प्रमादवश, या जडतावश वह करणजद है। तीनो दीक्षाके, अयोग्य हैं। भाषाजड ज्ञानप्राप्तिमें असमर्थ है, शरीरजड आवश्यक क्रियाओमें, तथा करणजड आवश्यक नियमादिके पालनमें असमर्थ हैं। ६. रोगी- भगंदर, अतिसार, कोट, पथरी, क्षय, ज्वर आदि व्याधि या रोगोंसे पीडित व्यक्तिको दीक्षा नहीं देना चाहिये । चिकित्सामें छकाय जीवकी विराधना संभव है तथा स्वाध्याय होना भी कठिन है। ७. स्तेन या चोर अनर्थका कारण होनेसे अयोग्य है। ८. राजापकारी- राजाके भंडार, अंतःपुर, शरीर या कुटुंबका द्रोह करनेवाला कारागृह देशनिकालके पात्र है अतः दीक्षाके योग्य नहीं। .. ९. उन्मत्त- पागल. या मोहके उदयसे परवश दीक्षाके योग्य नहीं है। उससे स्वाध्याय, ध्यान व संयमकाः पालना अशक्य है। ।। १०. अदर्शन या अंध, नेत्ररहित या समकितदृष्टिहीन इससे छकाय जीव विराधना होती है। समकित न होनेसे चारित्रके योग्य नहीं होता। ११. दास- दासीसे उत्पन्न या मोल लिया हुआ। वह स्वयं अपना अधिकारी नहीं है । स्वामीका उस पर स्वत्व है। .
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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