SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 35
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४. आचार्य गुणनिधानसूरि शिप्य आ० हर्षनिधान रत्नसंचय में यह अवतरण गाथा देते हैं-- पणपन्नवारससए, हरिभद्रसूरी भासीऽपूचकई तेरससय वीस यहिए, वरिसेहि वप्पट्टिपहू ॥२८२॥ -वीर नि स. १२५५ वि. सं ७८५) में महान ग्रन्थकार आ० हरिभद्रसूरिजी हुए। वीर नि. सं. १३२० (वि. सं. ८५०) में आ• वप्पभट्टिसूरि हुए। ५. दाक्षिण्यचिह्न आ० उद्योतनसृरिजी वि. सं. ८३५में अपनी रची हुई · कुवलयनाला की प्रशस्तिमे लिखते हैं-- सो सिद्धन्तेण गुरु, जुत्तिसत्येहि जस्स हरिभदो। बहुसत्थगन्थविस्थरपत्थारिय पयडसञ्चत्थो ॥१५॥ -~~-मेर सिद्धात गुरु आ० वीरभद्रसरिजी हैं और न्यायशास्त्रके गुरु एवं अनेक ग्रन्थों के निर्माता आ० श्रीहरिभद्रसूरिजी हैं। अर्थात् यह श्रीउद्योतनरसूरि वि. सं ८३५ में विद्यमान थे और आ० हरिभद्रसूरजी उससे पहले वि. सं ७८५ के अरसेमे थे यह अति विश्वस्त प्रमाण है। ६. आ० सिद्धर्पिगणि अपनी उपमितिभवप्रपञ्चाकथा' में लिखते हैं कि "नमोऽस्तु हरिभदाय, तस्मै प्रवरसूरये। मदर्थे निमिता एव, वृत्तिललितविस्तरा॥" -मुझे धर्ममे प्रवेश करानेवाले धर्मबोधकर आ० हरिभद्रसूरि हैं, जिन्होंने अपनी समयसूचकतासे मानो मेरे ही लिये चैत्यवन्दन पर ' ललितविस्तरा' नामकी टीका वनाई न हो ऐसे हरिभद्रमूरिजीको नमस्कार हो।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy