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________________ ३० (७) 'गुर्वावली' आदिके पाठोंका भी समाधान उक्तरीत्या समझना चाहिए । इस तरह उपर सुजब खुलासा हो जाता है । यह तो हुआ पाठोका समाधान लेकिन श्रीहरिभद्रसूजी वि.स ७८५ के अरसे मे स्वर्गस्थ हुए उसका पाठ नीचे मुजब है । १. बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति, शैवाचार्य भर्तृहरि और मीमांसक कुमारिल भट्ट आदि विद्वान विक्रमकी आठमी सदीमे हुए हैं । आ० हरिभद्रसूरिजी ने अपने ग्रन्थोमे उनके नाम और उनके ग्रन्थोके नामका उल्लेख किया है । इससे स्पष्ट है कि आ० हरिभद्रसूरिजी उनके पीछे हुए हैं। २ आ० जिनभद्रसूरिजीने वि सं. ६६६ में 'विशेषावश्यकभाष्य ' की रचना की है। उसमें एक ' ध्यानशतक' की रचना है और उस पर आ० हरिभद्रसूरिजीने टीका बनाई है जिससे निश्चित हो जाता है कि आ० हरिभद्रसूरि उस रचना संवत् पीछे हुए हैं। ३ आ० जिनदासगणि महत्तरने वि. सं. ७३३ लगभगमे चूर्णिप्रन्थों की रचना की है। आ० हरिभद्रसूरिजीने उन चूर्णियोके आधार पर ' आवश्यक - नियुक्ति टोका, नन्दीसूत्र टीका' आदिकी रचना की है। आ० हरिभद्र रेजीने 'महानिशीथसूत्र' का जो जीर्णोद्वार किया था उसका प्रथम आदर्श आ० जिनदासगणिको वांचनेको दिया था। इससे अब कहने की जरूरत नहीं है कि आ० हरिभद्रसूरिजी वि.स ७३३ के पीछे हुए हैं ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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