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________________ यतिधर्म देशना विधि : ३०५ तथा - अरक्तद्विष्टति ||१५|| ( २८४ ) मूलार्थ - और राग-द्वेषका त्याग करे || १५ || विवेचन - सर्वत्र राग-द्वेषके रहित होना । जो प्रिय करते हैं उन पर राग तथा अप्रिय करनेवाले पर द्वेष- दोनोंका त्याग करे । ममत्व या असक्ति न रखे पर प्राणिमात्र पर प्रेमभाव तो रखे । जो अपनेको प्रतिकूल हो - अपने को सहन न हो वह दूसरेके प्रति नहीं करना चाहिये | कहा है कि 'राग-द्वेषौ यदि स्यातां, तपसा कि प्रयोजनम् ? ।" - यदि राग-द्वेष वर्तमान है तो तपसे क्या प्रयोजन है? अर्थात् राग-द्वेष न रख कर ही तप करनेसे फलदायी होता है । तपसे भी राग द्वेष नष्ट होता है । तथा - ग्लानादिप्रतिपत्तिरिति ||१६|| ( २८५ ) मूलार्थ -और बीमार आदिकी सेवा करनी चाहिये ॥१६॥ विवेचन-- ग्लानादि- ज्वर पीडा या बीमार, बाल, वृद्ध, बहुश्रुत, मेहमान आदि, प्रतिपत्ति:- योग्य अन्न, पान आदि लाकर देना - वैयावच्च करना | जो बीमार हो, उम्र में बालक हो या वृद्ध हो, ज्ञानोपार्जनमें ज्यादा लगा हो या विद्याभ्यास अधिक करे व विद्वान हो अथवा कोई महेमान हो इन सबकी सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिये । उनको अन्न-पान आदि योग्य वस्तु लाकर देना चहिये। इस वैयावचका महान् फल्ल है । कहा है कि २०
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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