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________________ ३०४ : धर्मविन्दु इनमेंसे यति सर्वसंपत्करी भिक्षासे पिंड लाकर भोजन करे तथा- आघाताचदृष्टिरिति ॥१३॥ (२८२) मूलार्थ-जहां जीवहिंसा आदि हो, साधु उसे न देखे । टीकार्थ-आघागदेः-जहां जीवहिंसा आदि हो अर्थात् कसा. ईखाना, तथा जहा जुआ खेला जावे या अन्य दुष्ट कार्य होते हो तथा ऐसे ही अन्य प्रमाद स्थानोकी ओर अदृष्टि:- नहीं देखना, दृष्टिपात न करना। जहा जीवहिंसा हो अथवा तो जूआ, वेश्यागमन, अन्य व्यसनाढिमें पडे हुए मनुष्य हो या जहा व्यसन किये जाते हों, नाटक आदिके स्थल जहा भी प्रमाद हो ऐसे सर्व स्थानोंकी ओर साधु न देखे । अपनी दृष्टि न डाले। क्योकि उसके देखनेसे कई पूर्वभवोंके संस्कारोके जागृत हो जाने तथा प्रमादसे हृदय उधर आकर्षित हो जानेकी संभावना रहती है । उससे अनर्थ होता है अतः साधु ऐसे सर्व स्थानोंकी ओर दृष्टि भी न डाले । तथा- तत्कथाऽश्रवणमिति ॥१४॥ (२८३) मूलार्थ-और ऐसे स्थानोंकी बात भी न सुनें ॥१४|| विवेचन-आघात आदि जहा हो ऐसे उपरोक्त स्थानोकी बात भी यदि किसी द्वारा कही जाय तो उसे भी न सुने । उसके सुननेमें उपरोक्त दोष ही है। ऐसे संस्कार जागृत होना संभव है अतः सन्मार्गसे पतित हो सकते हैं।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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