SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यति सामान्य देशना विधि : ३९१ जहाँ दीक्षा देना हो वह स्थान शुद्ध हो। उममें दिशाशुद्धि भी आ जाती है फिर चैत्यवंदन तथा कोउसंग कराना चाहिये । त दीक्षार्थीको साधुवेश पहनाकर शीलका या सामायिकका उच्चारण करावे अर्थात् 'करेमि भते सामीइथे 'कह कर दीक्षा उच्चरावे । क्षेत्रशुद्धिके बारे में कहा है "उच्छवणे सालिवणे पउससरे कुसुमिए वणसंडे । गंभीरसाणुणाए, पयाहिणजले जिणेहरे वा" ॥१५२॥ तथी "पुराभिमुही उत्तरमुही वे, दिजाऽहवा पंडिच्छेजा। जाए जिणादओ वा, दिसाए जिणचेइयाई वा" ॥१५३॥ गन्ने का खेत या वनं, शालि गां धान्यको क्षेत्र, पद्मसरोवर, या पुष्पवाले वनखंडमें गंभीर शब्द करते हुए और प्रदक्षिणा में बहते हुए जलके पास अथवा जिनगृह या मंदिरमें दीक्षा देना चाहिये। पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर या जिस 'दिशामें केवली विहार करते हों या जिनचैन्य हो उस दिशांकी ओर शिष्यका मुख करके दीक्षा देना चाहिये। __ शीलके बारेमें कहते हैंअसङ्गतया समशत्रुमित्रता शीलमिति ॥४१॥ (२६७) मलार्थ-अनासक्तिसे शत्रु व मित्र के प्रति संमभाव रखना शील है ॥४१॥ "विवेचन अमगतया किसी वस्तुमें 'आसक्ति या प्रतिबंध रोहित ममत्वहीनता, समशत्रुमित्रता-शत्रु व मित्रके प्रति सममाव या चित्तही समानवृत्ति।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy