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________________ २५६ : धर्मविन्दु विवेचन - सत्त्वादिषु - सामान्यतः सब जीवोके प्रति व विशेषतः दुःखी, सुखी व दोषीके प्रति भावनाएं, मैत्रयादियोग- मैत्री आदि चार भावना । जैनधर्ममे यह चार भावना बहुत आवश्यक हैं। किसके प्रति कौनसी भावना रखना उसका लक्षण इस प्रकार है 'परहितचिन्ता मैत्री, परदुःखविनाशिनी तथा करुणा । परसुख तुष्टिर्मुदिता, परदोपोपेक्षणमुपेक्षा " ॥१४२॥ --दूसरे के हितकी चिन्ता या सर्वके प्रति सामान्यतः मैत्रीकी भावना - मैत्री हैं, और दूसरो के दुःखको हरनेकी कामना - करुणा, दूसरेके सुखमें सतोष- मुदिता और दूसरोके दोपोको न देखनाउपेक्षा या माध्यस्थ्य भावना है। वडे, समान व हलके लोगोंके प्रति क्रमशः प्रमोद, मैत्री व कारुण्य भावना होनी चाहिये । दोषयुक्त पुरुषो के प्रति माध्यस्थ भावना रखे। कोई भी व्यक्ति ज्ञान, गुण, कला या विद्या किसी भी अपनेसे आगे हो उसके प्रति प्रमोद भावना अथवा आनंद उत्पन्न हो, ईर्ष्याको स्थान न मिले। उससे उत्साह प्राप्त करना चाहिये । द्वेषसे आर्त्तध्यान व कर्मबंध होता है । प्राणी मात्र के प्रति सुहृद् भावना रखे। स्वार्थका त्याग करना चाहिये व 'अहम्' - 'मैं' पनको छोडना चाहिये । समभाव रखनेवाला ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है चाहे वह किसी धर्मका अनुयायी हो । 'वंटितासूत्र 'मे भी कहा है- " मित्ति मे सव्वभूएसु, वेर मज्झ न केणई " मुझे सबसे मित्रता हैं किसी से भी वैर नहीं। अपनेसे '
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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