SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि • २५५ कुर्यां तदुत्तमतरं च तपः कदाऽहं भोगेपु निःस्पृद्दतया परिमुकसंग ः " ॥ १४१ ॥ 7 -- सर्व भवो में किये हुए कमको काटनेवाले जैन मुनिव्रतको स्वयं पा कर भोग मात्रसे स्पृहारहित होकर, सर्व-संगका त्याग करके कब मैं इस उत्तम-तपका-भाचरण कर सकूंगा' इत्यादि शुद्ध भावना रखे तथा-यथोचितं गुणवृद्धिरिति ||१२|| (२२५) मूलार्थ - यथोचित गुणवृद्धि करे ॥ ९२ ॥ विवेचन-यथोचितं- सम्यक् दर्शन आदि गुणोंकी - जब भी हो सके वृद्धि करना चाहिये। उसकी दुर्गनप्रतिमा व व्रतप्रतिमा द्वारा वृद्धि या पुष्टि करना ★ दया, जितेन्द्रिय, क्षमा, परोपकार, नम्रता, सयता, आत्मसंयम, आदि गुणोंको जो बढ़ाना हो तो उनको पैदा करना । एक. गुणको लेकर प्रातःकाल मनन करे, दिनभर उसे काममें लाने का प्रयत्न करे तथा रात्रिमे उसकी जांच करे । इस तरह लगातार कई दिन तक करते रहने से वह गुण उत्पन्न होगा। एक गुणके पूर्ण विकास - होने पर कुछ अंगोंमें दूसरे भी कई गुण उत्पन्न होगे । एक्के बाद दूसरे गुणको भी इसी प्रकार उत्पन्न करे। इस तरह धीरे धीरे कइ गुण विकसित होंगे। तथा - सम्वादिषु मैत्र्यादियोग इतीति ॥ ९३॥ ( २२६) मूलार्थ - सर्व जीवों के प्रति मैत्री आदि- चार भावना रखना चाहिये ॥ ९३ ॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy