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________________ २४४ : धर्मविन्दु होती है। अतः प्रत्येक कार्यको निपुणवुद्धिसे विचार कर तथा उस प्रकारसे हमेशा योग्य वृत्तिसे प्रत्येक कार्य करे जिससे सर्व वांछित सिद्धिको देनेवाली लोकप्रियता वृद्धिको प्राप्त हो और कोई भी जनापवाद न हो। लोगोमें अप्रसिद्ध (निंदा ) या अपयश मरनेसे भी बुरा है। कहा है कि"वचनीयमेव करणं भवति, कुलीनस्य लोकमध्येऽस्मिन् । मरणं तु कालपरिणतिरियं च जगतोऽपि सामान्या" ॥१२९॥ -~-इस लोकमें कुलीनके लिये कलंक या अपयश (निंदा) ही मरण तुल्य है। काल परिणामसे जो मृत्यु होती है वह तो सबको सामान्य ही है। तथा-गुरुलाघवापेक्षणमिति ॥७३।। (२०६) मूलार्थ-सब बातोंमें गुरु लघुकी-बडे छोटेकी अपेक्षा रखना चाहिये ॥७३॥ विवेचन-अधिक लाभ देनेवाला व कम लाभ देनेवाला गुरु व लघु कहलाता है। धर्म, अर्थ व काम- तीनों पुरुषार्थोंमें तथा सब कार्योंमें गुण किसमें अविक है व किसमें कम है या दोष किसमें कम व किसमें ज्यादा है इसका अवश्य पूर्णतः विचार करे। उसका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके बलकी अपेक्षाले विचार करे- यह बुद्धिमानोका आवश्यक कर्तव्य है। इस प्रकार गुरु व लघुकी- अधिक व कम लाभवालेकी निपुणतासे विचार करे। तब क्या करना, शास्त्रकार कहते हैंF' , ' बहुगुणे प्रवृत्तिरिति ॥७४।। (२०७)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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