SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्य विशेष देशना विधि : २४३चनों पर अनुकम्पा काके उनका उपकार करना धर्मका हेतु है। कहा है कि "लोकार्थेन प्रवक्ष्यामि, यदुकं प्रत्यकोटिभिः । परोपकार पुण्याय, पापाय परपीडनम् ॥१३८॥ "अन्योपकारकरणं, धर्माय महीयते च भवतीति। अघिगतपरमार्थानामविवादो वादिनामत्र" ॥१२॥ -जो करोडो ग्रन्थोंमें कहा है वह मैं आये श्लोकमें कहता हूं। परोपकार पुण्यके लिये तथा परपीडन (दूसरोंको कष्ट देना) पापका हेतु है। परमार्थ प्राप्त तथा तत्वज्ञानी पुरुषोंके मतसे परोपकार करना महत् परमार्थ के लिये होता है । इसमें वादीजनोंमें दो मत नहीं है ( सर्व मान्य है)। ___ पहले कीर्ति के लिये फिर सुखेच्छासे तथा अंतत निःस्वार्थ परोपकार बुद्धिसे दान दिया जाता है इस तरह क्रमश बढते वढते उच्च मावनाको पहुंचे। यही उच्च मावना युक्त दान एक महान् धर्म है। तथा लोकापवादभीरतेति ॥७२॥ (२०५) मूलार्थ-लोकापवादसे डरते रहना चाहिये ।।७२।। विवेचन-लोकापवाद-सब-लोगोंका द्वेष हो वह, भीरताडरकी, भावना-!. जिस बातसे- अपयश मिले वह न करना चाहिये । लोगोंकी सामुदायिक नाखुश होनेकी स्थितिसे बचना चाहिये । उससे हर समय डरते रहना चहिये तथा दूर रहना चाहिये । अपयनसे- प्रतिष्ठा कम
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy