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________________ २२२ : धर्मविन्दु इस प्रकार अणुव्रत आदि १२ व्रत तथा उसके अतिचार कहनेके बाद उसी विषय पर आते हैंएतद्रहिताणुव्रतादिपालनं विशेषतो गृहस्थधर्म इति ॥३५॥ (१६८) मूलार्थ-इन अतिचारों रहित अणुव्रतका पालन गृहस्थका विशेष धर्म है ॥३५॥ विवेचन-इस प्रकार जिन अतिचारोंका वर्णन किया है वे न लगें, उनके रहित निरतिचारपनसे अणुव्रत आदि और उस प्रकार सम्यक्त्वका पालन करना चाहिये । इनका निरतिचार पालन गृहस्थका विशेष धर्म है ऐसा शास्त्रोमें प्रथमतः ही सूचित है। कहा है कि यदि विधिवत् व्रत ग्रहण किये हों तो सम्यक्त्व तथा इन अणुनतादि १२ व्रतोंमें अतिचार असभव हैं तो " इनके रहित अणुव्रतादिका पालन करना चाहिये" ऐसा क्यों कहा है ? इस शंकाका उत्तर देते हैं-- क्लिष्टकर्मोदयादतिचारा इति ॥३६॥ (१६९) मृलार्थ-क्लिष्ट कर्मके उदयसे अतिचार लगते हैं ॥३६॥ विवेचन-सम्यक्त्व आदिको अंगीकार करनेके समय उत्पन्न शुद्ध गुणों से भी जिन कर्मोका सर्वथा नहीं हुआ है, जो कर्मवध छिन्न नहीं हुए ऐसे मिथ्यात्व आदि कोंके उदयसे- उनके विपाकसे ये अतिचार होते हैं। शंका तथा वधबंध आदि अतिचार उत्पन्न होते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि जब भव्यत्वकी शुद्धिसे मिथ्यात्व
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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