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________________ १९४ : धर्मविन्दुव्रतभंग ही है। पर यदि केवल सहसात्कार आदिसे तथा अतिक्रम, व्यतिक्रमसे होनेवाले ये अतिचार कहे गये हैं। ये अतिचार राज्य कर्मचारियोंको नहीं लगते ऐसा नहीं है, उन्हें भी लागू होते हैं। पहले दो स्तेनप्रयोग, तदाहृतादान-चोरोंकी मदद व वस्तुसंग्रह-तो उनको स्पष्ट ही लागू पडते हैं अर्थात् वे भी ऐसा कर ही सकते है। यह काम वे शायद ज्यादा अच्छा कर सकते हैं क्योकि वे चोरोंको पकडनेका काम भी करते हैं। उत्तेजन देना, खासकर पुलिसके लिये, बहुत आसान है । मंत्री आदि अन्य नौकर भी अपने स्वामीका नमक खाने पर भी यदि शत्रु राष्ट्रकी सहायता करते हैं तो स्पष्टतः यह अतिचार लगता है। राज्य मंडारकी वस्तुएं लेने देनेमें अथवा राज्यके लिये आवश्यक सामग्रीके खरीदने में हल्की वस्तु लेकर अधिक कीमत वसूल करके जेबमें डाल देना या वीचमें दलाली व कमीशन खाना-ये सब चौथे व पांचवे अतिचारके भेद हैं। ये सब वस्तुतः व्रतभंग ही है कारण कि इससे चोरी ही होती है, पर यदि ऐसा ही व्रत ध्यानमें लिया हो तो अतिचार है। । अब स्वदार-संतोष व परदारविरमण नामक चतुर्थ अणुव्रतके अतिचार कहते हैंपरविवाहकरणेत्वरपरिगृहीताऽपरिगृहीतागमनानगा क्रीडातीवकामाभिलाषा इति ॥२६॥ (१५९) मूलार्थ-दूसरोंके पुत्र या पुत्रीका विवाह करना, दूस
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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