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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि ः १६४ भावसे योग्यको ही अधिकारी कहा है, अन्या-इससे भिन्न, परमार्थता-वस्तुतः। श्री जिन भगवान जो लोकका कल्याण करनेवाले हैं, उन्होंने उपर्युक्त श्लोकोमे वर्णित गुणवाले पुरुषको ही इस विशेष धर्मके ग्रहणका अधिकारी माना है। क्योकि ऐसा साधक ही मोक्ष नामक साध्य फलकी साधना कर सकता है। अयोग्य पुरुष जो सामान्य धर्मका भी ठीक पालन न कर सके वह विशेष धर्मको कैसे सफलतासे पाल सकता है। साथ ही शासनकी उन्नति भी योग्य व्यक्तिके धर्म ग्रहण करनेसे ही होती है । अन्य व्यक्ति वस्तुत. इस विशेष धर्मका अधिकारी नहीं है, क्योंकि वह मोक्षफलकी साधना नहीं कर सकता। इति सद्धर्मग्रहणाहे उक्तः, साम्प्रतं तत्पदान विधिमनुवर्णयिष्यामः ॥१॥ (१३४) मूलार्थ-इस प्रकार सद्धर्म ग्रहण करने योग्य पुरुषका वर्णन किया। अब उस सद्धर्मको देनेकी विधि कहते हैं ॥१॥ विवेचन-धर्म अपनी चित्तशुद्धिके आधीन है तो उसके ग्रहण करनेसे क्या कहते हैं किधर्मग्रहणं हि सत्प्रतिपत्तिमद् विमलभाव करणमिति ॥२॥ (१३५), मलार्थ-सत्प्रतिपत्तिसे धर्म ग्रहण करना निर्मलभावका कारण है ।।२।।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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