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________________ १६० : धर्मविन्दु " एक एव सुहृद्धर्मो, मृतमप्यनुयाति यः । शरीरेण समं नाश, सर्वमन्यत् तु गच्छति " ॥९८॥ --धर्म ही ऐसा सुहृद्-मित्र है जो मृत्यु होने पर भी जीवके साथ जाता है और धर्मको छोडकर अन्य सब शरीरकी तरह उसीके साथ नष्ट हो जाता है। धर्मकी ऐसी उपादेयता जानकर उसकी प्रापिकी इच्छा हो तब दृढरूपसे अपने सामर्थ्यका विचार करके शुद्ध विधिसे धर्म ग्रहण करनेकी प्रवृत्ति करे । यदि शक्तिका ठीक विचार न करके शक्तिसे ज्यादा धर्मको ग्रहण करे तो भंग होना सभव है, जिससे उलटा अनर्थ संभव है अत: पूर्ण व दृढ विचार आवश्यक है। ___क्या यही व्यक्ति धर्म ग्रहण करनेका अधिकारी हैं ? अन्य क्यों नहीं ? कहते हैंयोग्यो ह्येवंविधः प्रोक्तो, जिनैः परहितोद्यतैः। फलसाधनभावेन, नातोऽन्यः परमार्थतः ॥१५॥ मलार्थ-परहितमें उद्यत जिनेश्वराने फल साधनाके भावसे ऐसे ही लक्षणोंसे युक्त पुरुषोंको योग्य कहा है । वस्तुतः अन्य पुरुष इसके योग्य नहीं है।. विवेचन-योग्यः-भव्य, एवंविधः-इस प्रकारके उपरोक गुणोवाला धर्मग्रहणके योग्य नर, परहितोद्यतैः-सब जीव लोकके कल्याणमें उद्यत प्रभुद्वारा, फलसाधनभावेन--फल साधनाके
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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