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________________ ११४ : धर्मविन्दु " तन्नेत्रिभिरीक्षते न गिरिशो नो पद्मजन्माष्टभिः, स्कन्दो द्वादशभिर्न वा न मघवा चक्षुः सहस्त्रेण च । संभूयापि जगत्नयस्य नयनस्तद्वस्तु नो वीक्ष्यते, प्रत्याहृत्य दृशः समाहितधियः पश्यन्ति यत् पण्डिताः॥८॥ --" समाधिवाली बुद्धिको धारण करनेवाले पंडित अंतरदृष्टिसे जो वस्तु देख सकते हैं वह शंकर तीन नेत्रोंसे, ब्रह्मा आठसे, कार्तिकेय बारहसे, तथा इंद्र हजार चक्षुसे भी नहीं देख सकता । इतना ही नहीं तीन जगत्के नेत्र भी एकत्र होकर उस वस्तुको नहीं देख सकते।" जो ज्ञानी हैं वह क्षणभरमें ज्ञानाग्निसे कर्मदलको बिखेर देता है । आत्मप्रदीप स्वयमेव प्रकाशित होता है व ऐसा ज्ञानी सर्वत्र पूज्य है । और भी कहा है"नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति, नेटं नेच्छन्ति शोचितुम् । आपत्सु च न मुह्यन्ति, नराः पण्डितवुद्धयः ।।८१॥ "न हृष्यत्यात्मनो माने, नापमाने च रुष्यति । गाह्रो हृद् इवाक्षोभ्यो, यः स पण्डित उच्यते" ॥८२॥ -पंडित जन अप्राप्य वस्तुकी इच्छा नहीं करते, नष्ट वस्तुका खेद नहीं करते, और आपत्तिमें घबराते नहीं ॥८॥ अपना मान होनेसे हर्षित नहीं होता, अपमानसे रोष नहीं करता अर्थात् जो गंगानदीकी तरह क्षोभ रहित है वहीं पंडित है। मानापमानमें हर्प शोक रहित हृदयको स्थिर रखना बुद्धिमानी है । ज्ञानीकी परीक्षासे ज्ञानकी परीक्षा स्वतः हो जाती है । तथा-पुरुषकारसत्कथेति ॥२९॥ (८७) मूलार्थ-और पुरुषार्थ (उद्योग) की प्रशंसा करे ॥२९॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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