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________________ गृहस्थ देशना विधि : ११३ "धर्मबीजं परं प्राप्य, मानुष्यं कर्मभूमियु। न सत्कर्मकृपावस्य, प्रयतन्तेऽल्पमेधसः" ॥७८|| "विडिशामिषवत् तुच्छे, कुसुखे दारुणोदये। सक्कास्त्यजन्ति सच्चेष्टां, धिगहो ! दारुणं तम." ॥७९॥ -~~-जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, शोक आदि उपद्रवोंसे पीडित इस संसारको देख कर भी उसमें रहनेवाले मनुष्य मोहके कारण इससे उद्वेग या वैराग्य नहीं पाते ॥७७॥ -~-इस कर्मभूमिमें दुर्लभ मनुष्य भवरूपी उत्कृष्ट धर्मवीज प्राप्त करके भी अल्प बुद्धिवाले उससे सल्कर्मरूपी खेती करनेका प्रयल नहीं करते ७८॥ जो मनुष्य जन्मका सदुपयोग नहीं करते वे चिंतामणि रत्नसे कौआ उडाने के समान इसे खोते है। अतः सत्कर्म में प्रवृत्ति करके मनुष्य जन्म सफल करना चाहिये ॥७९॥ ___ गलगोरि ( कांटेमें मांस ) की तरह तुच्छ तथा भयंकर परिणामवाले और सुखका आभास मात्र विषय सुखमें आसक्तिवाले मनुष्य जिस कारण सक्रियाका त्याग करते हैं उस भयंकर मोहरूप अंधकारको धिक्कार है। तथा-सज्ज्ञानप्रशंसनमिति ॥ २८ ॥ (८६) मूलार्थ-और सद्ज्ञानकी प्रशंसा करना चाहिये ॥८॥ विवेचन-सत् या सम्यग् ज्ञानवाले पंडित - जनकी और विवेचना सहित ज्ञानकी प्रशंसा करना चाहिये। इससे श्रोताओंको ज्ञान-तथा ज्ञानी पर पूज्यभाव हो व ज्ञान प्राप्तिकी इच्छा हो । जैसे---
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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