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________________ ९६ : धर्मविन्दु श्रति होने से पूर्ण श्रद्धा व अडिग भक्तिसे धर्ममें प्रवृत्ति नहीं होती । यथार्थ फलसे भी वंचित रहना पडता है । अतः गलत धारणा व भ्रांतिको त्याग कर आत्मविश्वास व कार्य-कारणके नियम में विश्वास रखना चाहिये। योग्य उपाय करनेसे प्राप्य वस्तु अवश्य मिलेगी "ऐसा निश्चय रखे। इसे प्राति रहितता या निर्विचिकित्सा कहते हैं । अथवा तो साधुके मलिन गात्र आदि देख कर भी जुगुप्सा नहीं करना चाहिये, उसे निर्विजुगुप्सा दर्शनाचार कहते हैं । ४. अमूढदृष्टि - बाल तपस्वी या अज्ञान कष्ट करनेवाले (जैसे हठयोगी ) तपस्वी तप, विद्या आदि अतिशय देख कर मूढ न हो, सम्यग्ज्ञान रूप दृष्टि ं चलित न हो, उसे अमूढदृष्टि दर्शनाचार कहते है । यह चार दर्शनाचार गुणी प्रधान है ( गुणका आश्रय लेकर कहे है ) अब गुण प्रधान ( गुण का आश्रय लेकर कहते हैं ) - ५. उपबृंहा—-साधर्मिक बन्धुओंके सद्गुणों की प्रशंसा करना तथा उसमें वृद्धि करनेको उपबृंहण दर्शनाचार कहते हैं । 2 ६. स्थिरीकरण - धर्म से पतित या धर्मभ्रष्ट होनेवालेको रोककर धर्ममे दृढ करनेको स्थिरीकरण दर्शनाचार कहते हैं । ७. वात्सल्य - समानधर्मी पुरुषोंका उपकार करना वात्सल्यदर्शनाचार है । ८. तीर्थप्रभावना - धर्मकथा आदिसे तीर्थकी, धर्मकी प्रसिद्धि करना तीर्थप्रभावना दर्शनाचार है । 7 - पश्चादुवर्त्ती चारों भेद गुणोका आश्रय लेकर कहें हैं। गुण व
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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