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________________ ८८ : धर्मचिन्दु है तथा श्रद्धा सहित मान्य ( देव, गुरु व धर्म )की भक्ति करता है उसकी धर्मक्रिया उत्कृष्ट है। " यस्य त्वनादरः शास्त्रे, तस्य श्रद्धादयो गुणाः । उन्मत्तगुणतुल्यत्वान प्रशंसास्पद सताम्" ॥५७॥ -~~-जिसको शास्त्रके प्रति आदर नहीं है उसके श्रद्धा आदि गुण उन्मत्त पुरुषके गुणो जैसे हैं और सत्पुरुषो द्वारा प्रशंसनीय नहीं है। "मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोभनम् । अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विदुर्बुधाः" ॥५८॥ ----जैसे जल अत्यंत मलिन वस्त्रको भी स्वच्छ कर देता है वैसे पंडित जन शास्त्रको अन्त करण रत्नका शोधन करनेवाला बताते हैं। "शास्त्र भक्तिर्जगद्वन्द्यैर्मुक्तिदूती परोदिता। अत्रैवेयमतो न्याय्या, तत्प्राप्यासनभावतः" ॥५९॥ -~-जगवंद्य श्रीतीर्थकर देवद्वारा शास्त्रभक्ति मुक्ति स्त्रीकी उत्कृष्ट दूती कही गई है (याने शास्त्रभक्ति मुक्ति लानेवाली ) है यह योम्य वचन है क्योकि शास्त्रभक्तिसे मुक्ति समीप आती है। शास्त्रभक्तिसे ज्ञानवृद्धि, क्रियावृद्धि तथा कर्मनिर्जरा होती है और मुक्ति स्वतः समीप आती है। (योग २२१-३०) इस प्रकार उपदेश देकर श्रोताके मनमें शास्त्रके प्रति आदरको जगाना चाहिये। तीर्थकर व केवलज्ञानीके विचरणके समय शास्त्रकी आवश्यकता ही नहीं होती पर उनके न होनेसे उनके उपदिष्ट वचन
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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