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________________ गृहस्थ देशना विधि : ८१ मूलार्थ - देशनायोग्य व्यक्तिकी प्रकृति तथा उसके इष्ट देव आदिका ज्ञान प्राप्त करे ||२|| विवेचन - प्रकृतिः - उसका स्वरूप, गुण व गुणीजनोंके संगमें प्रीति, अप्रीति आदि, देवताधिमुक्ति - बुद्ध, कपिल आदि कौनसे देव इष्ट है तथा मुक्ति किस भाति मानता है । देशना देनेवाला व्यक्ति उपदेश सुननेवालेकी प्रकृतिको पहले जाने । उसका गुणानुराग, आचार विचार, तथा उसके इष्टदेव व मुक्तिकी मान्यता जान ले । यह जानने से किस रास्ते धर्मज्ञान देना यह जाना जा सकता है । जिस मनुष्यमें (१) प्रवृत्ति बहुत हो उसे क्रियामार्गसे, (२) प्रेम बहुत हो उसे भक्तिमार्गसे, (३) ज्ञानके प्रति रुचिवालेको ज्ञानमार्गसे उच्च राहकी ओर - धर्मकी राह पर लाया जा सकता है | अतः उपदेश्य पुरुषके गुण, अवगुण जानना आवश्यक है । - प्रकृति जानने से यदि रागी, द्वेषी, मूढ या अन्य किसी उपदेशक द्वारा पहले विपरीत धर्म न पाया हो तो कुशल उपदेशक उसे उसे भांति लोकोत्तर गुणके पात्र बना सकता है। यदि उसकी देवमुक्तिकी मान्यता ज्ञात हो जाती है तो उस देवताद्वारा प्रणीत मार्गानुसारी गुणोंका उपदेश देनेसे उसके रचे हुए राहके अनुसार वचन समझा कर उसकी प्रीति उत्पन्न करना चाहिये, फिर अपने व उसके शासनमें क्या क्या मतभेद हैं तथा उसके क्या कारण हैं, उसमें क्या दूषण हैं, अधिक ऊंचे तत्त्व किसमें है आदि समझा कर द " उसे संद्धर्मके राह पर आसानीसे लाया जा सकता है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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